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लग्न साधन में अयनांश का विशेष महत्व है क्योंकि अयनांश मे अंतर होने से सूर्योदय, लग्न, ग्रहो के रेखांश, वर्ग, दशा आदि में फर्क आ जाता है। अयनांश सही न हो तो जन्म कुंडली सही नहीं बनती और फलस्वरूप फलादेश सटीक नहीं हो पाता है । वैदिक काल में अयनांश को लग्न साधन में बहुत महत्व दिया जाता था, प्राचीन ग्रंथों में निर्देश है “अयनान्शोनितं सुत” हे सुत ! अयनांश को घटना चाहिए। वशिष्ठ संहिता के अनुसार –
शास्त्रोक्तमार्गेण सुलग्न कालं स्फुट समानीय जलादियन्त्रै: ।
सलभ्य तं मंगलसूक्ष्मकालं संलोकयेतत्र मिथोर्ध्वदृष्टि: ।।
जैसा की सिद्धांत ग्रंथो में कहा गया है कि किसी स्थान के लिए लग्न स्फुट सही समय (नाक्षत्रिय समय ), तिथि के अनुसार समय मापक यंत्रो दवारा निकलना चाहिए । सही समय ज्ञात होने के बाद उस समय का सही नाक्षत्र या निरयन देशांतर घटाना चाहिए ।
अयनांश का सिद्धांत पश्चिम में ५०० ईसा पूर्व बेबीलोनिया से प्राप्त होता है जो गैलेक्सी केन्द्रित है जबकि भारत के आचार्य चन्द्रहरि ने सूर्यसिद्धांत के आधार पर जो अयनांश निकालने की विधि बताई है वह मूल नक्षत्र केन्द्रित है। यह सर्वविदित है कि मूल नक्षत्र एक तारा है जो हमारी गैलेक्सी के केंद्र के करीब है। वैदिक अयनांश का सिद्धांत ईसा पूर्व ३००० से ज्यादा प्राचीन है ।
श्रीमदभागवतम में अयनांश के बारे में यह श्लोक भी प्राप्त होता है –
ज्योतिषामयनं साक्षाद्यत्तद्ज्ञानंतीन्द्रियं । प्रणीतं भवता येन पुमान्वेद परावरम्
ज्योतिष में अयन का ज्ञान प्राप्त करना अतीन्द्रिय कार्य है, यह पंच ज्ञानेन्द्रियों से नहीं जाना जा सकता है।
स्पष्ट है वर्तमान अयनांश का गणित भी एकदम सटीक नहीं है, और सटीक निकाला भी नहीं जा सकता है। मेष राशि को प्रारम्भ बिंदु माना जाय ? इसमें मतभेद है जिसकी वजह से हर सिद्धांतकार अपना अयनांश लेकर आ जाता है । वर्तमान में भारत में तीन अयनांश लाहिरी अयनांश, लाहिरी के आलोचकों का चित्रा पक्ष और कृष्णमूर्ति अयनांश प्रमुखता से प्रयोग किये जा रहे हैं ।
अयनांश : अयनांश संस्कृत के दो शब्दों अयन +अंश से मिलकर बना है (अयन = हिलना-डुलाना, चाल। अंश = घटक)। भारतीय खगोल मे इसका अर्थ अग्रगमन की राशि है। अग्रगमन ( PRECESSION) पृथ्वी के धुर्णन अक्ष का उन्मुखीकरण बदलाव है। स्थायी मेष के प्रथम बिन्दु और चलायमान मेष के प्रथम बिन्दु की कोणीय दूरी अयनांश है, दूसरे शब्दो मे जिस समय सायन और निरयण भचक्र सम्पाती (समान) थे वहा से वसंत सम्पात की पीछे की ओर कोणीय दूरी अयनांश है। वर्तमान समय में वसंत सम्पात मीन राशि उत्तरभाद्रपद को पार कर धीरे धीरे खिसक कर कुम्भ की तरफ जा रहा है। यह एक नये युग का आगाज करन वाला है जिसकी धमक सुनाई पड़ रही है। आधुनिक खगोल के अनुसार अयनांश सायन भचक्र और निरयण भचक्र का अंतर है। गौरतलब है कि आधुनिक खगोल अनुसार सायन या सौर वर्ष, निरयण या नाक्षत्र या निरयन वर्ष से लगभग २० मिनट अधिक है।

वसंत और शरद सम्पात अर्थात विषुव अयन बिंदु प्रत्येक वर्ष पश्चिम की ओर पीछे हटते जाते है। इनकी गति वक्र है यही गति अयन चलन या विषुव क्रांति या वलयपात कहलाती है। इनका पीछे हटना ही अयन के अंश अर्थात अयनांश PRECESSION  OF  EQUINOX कहलाता है। सम्पात का एक चक्र लगभग २५०००-२७००० वर्ष मे पूर्ण होता है, अतः औसत अयन बिन्दुओ को एक अंश चलने मे ७२ वर्ष लगते है। इसकी मध्यम गति ५०″१५′” प्रति वर्ष है।

भारत मे विभिन्न प्राचीन सिद्धांतो अनुसार पंचाग बनाए जाते हैं। इन प्राचीन सिद्धांतो पर आधारित अयनांश भी भिन्न-भिन्न होते है। अयनांश साधन सूर्य सिद्धांत अनुसार अत्यधिक कठिन होने से ज्यादातर विद्वानों को ग्रह लाघव की विधि ही मान्य है। ग्रहलाघव अनुसार शक: ४४४ मे अयनांश शून्य था इसकी वार्षिक गति ६० विकला प्रतिवर्ष है।

अयनांश साधन : ग्रहलाघव मत के अनुसार – इष्ट शक: संवत मे से ४४४ घटाये, शेष मे ६० का भाग दे लब्धि अंश होगे, शेष मे १२ का गुणा कर गुणन फल मे पुनः ६० का भाग  लब्धि कला होगी, शेष मे ३० का गुणा कर गुणन फल मे पुनः ६० का भाग दे लब्धि विकला होगी। इसकी गति ६० विकला वार्षिक है। विभिन्न मतो अनुसार शक: १८६५ वर्षारम्भ पर अयनांश निम्न थे।

ग्रहलाघव मत  – २३ अंश, ४१ कला, ०० विकला।
केतकर मत     – २१ अंश, ०२ कला, ५७ विकला।
रमन मत -२२ अंश, ३३ कला, १२/५० विकला।
एन सी लाहिरी मत -23अंश, ५९ कला, ४६ विकला।
कृष्णमूर्ति मत -२१ अंश, ०२ कला, ५७ विकला।