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किसी भी व्यक्ति का जन्म किसी विशेष कुल में होता है जहाँ उसे अच्छे माता- पिता , भाई बहन, चाचा, रिश्तेदार इत्यादि मिलते हैं। उसे जीवन में अच्छे गुरु, अच्छे मित्र मिलते हैं। जब युवा होता है और शादी होती है तो उसे एक सुभगा अच्छे संस्कारों वाली सुंदर पत्नी मिलती है जिससे उसे अच्छी सन्तान की प्राप्ति होती है। वह जीवन में अच्छी विद्या, धन, और समाज में सम्मान प्राप्त करता है । वह धर्म मार्ग पर चलता है और जीवन में अच्छे पुण्यों को ही अर्जित करता है । इसके विपरीत कोई दूसरा जन्म ऐसे कुल में होता है जहाँ उसे अज्ञानी , क्रूर स्वभाव के माता-पिता इत्यादि मिलते हैं । उसे एक अविद्यारुपिणी पत्नी मिलती है जो सिर्फ कुपुत्रों को ही जन्म देती है। वह जीवन में न विद्या अर्जित करता है और न धन और सम्मान ही पाता है। ये दोनों ही व्यक्ति अपने पूर्वार्जित पाप और पुण्य से अलग अलग लग्नों में ग्रहों के साथ जन्म लेते हैं। पराशर ऋषि ने लिखा है –
कर्मणां फलदातृत्वे ग्रहरूपी जनार्दन: ।
ग्रहयोगवियोगाभ्यां कुलदेशादि देहिनाम । ।
ग्रहरूपी जनार्दन प्राणियों के कर्म फल को देने वाले है, ग्रहों के योग और दुर्योग से मनुष्यों के कर्मों के अनुसार कुल देश आदि में उन्हें तत्तफल प्राप्त होता है ।
हर व्यक्ति की कुण्डलिनी शक्ति मूलाधार में उसके पूर्वार्जित पाप-पुण्य अर्थात कर्म संस्कारों को लेकर स्थित है। जन्म कुंडली वास्तव में इसी व्यष्टिगत कुण्डलिनी की तरफ इंगित करती है। जन्म कुंडली कुण्डलिनी शक्ति का विस्फार है। यह शक्ति अपने भीतर भगवान श्री हरि द्वारा उत्पन्न सभी ग्रहों को समेटे हुए है और खुद को जन्म कुंडली के बारह भावों में विभक्त करती है। यह राशिचक्र परा कुण्डलिनी के ही गर्भ में स्थित है। व्यक्ति के पूर्वार्जित पाप और पुण्य को समेटे मूलाधार स्थित कुण्डलिनी जन्म के समय ग्रहों के साथ खुद को बारह भावों में अभिव्यक्त करती है। अपने कर्मों के अनुसार ही कोई राजयोग लेकर जन्म लेता है तथा कोई दरिद्र योग के साथ पैदा होता है।
व्यक्ति अपने कर्मों के अनुसार अच्छे या बुरे घर में, शुभ या अशुभ योगों के साथ जन्म लेता है, यह भगवद्गीता द्वारा भी पुष्ट है। इस सन्दर्भ में भगवान श्री कृष्ण से अर्जुन ने भगवदगीता में यह पूछा था –
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।
आध्यात्म को स्वीकार करके जिसने इस लोक और परलोक की प्राप्ति के साधनरूप कर्मों का तो त्याग कर दिया लेकिन उसे ज्ञान नहीं मिला, ऐसे योगी के नाश की आशङ्का करके अर्जुन ने पूछा – हे कृष्ण जिसकी साधनमें श्रद्धा है पर जिसका प्रयत्न शिथिल है, वह अन्त समयमें  अगर योग से विचलित हो जाय तो वह योगसिद्धिको प्राप्त न करके किस गतिको प्राप्त होता है।
कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि।।
हे महाबाहो ! संसारके आश्रयसे रहित और परमात्म प्राप्ति के मार्ग में मोहित अर्थात् विचलित – इस तरह दोनों ओरसे भ्रष्ट हुआ साधक क्या छिन्न-भिन्न बादलकी तरह नष्ट तो नहीं हो जाता ?
भगवान ने अर्जुन के प्रश्न का समाधान किया और कहा कि उसका न तो इस लोकमें और न परलोकमें ही विनाश होता है, पुण्य कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।
प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते।।
ऐसा मनुष्य जो श्रद्धायुक्त था लेकिन पथभ्रष्ट हो गया, वह पुण्यकर्म करने वालों के अर्थात् अश्वमेध आदि यज्ञ करने वालों के लोकों में जाकर वहाँ बहुत काल तक अर्थात् अनन्त वर्षों तक वास करके उनके भोग का क्षय होनेपर शास्त्रोक्त कर्म करने वाले शुद्ध और श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है।
भगवान ने ही कहा है कि इस लोक में जिसने भी धर्म मार्ग का थोडा सा भी अनुसरण किया है उसका किसी काल में विनाश नहीं होता “नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते” धर्मानुष्ठान का कभी उलटा फल भी नहीं होता  बल्कि इसके विपरीत “त्रायते महतो भयात्” यह महान भय से रक्षा करता है।
इस तरह भगवान ने स्पष्ट किया कि किसी का भी जन्म उसके अपने कर्मों के अनुसार ही अच्छा और बुरा होता है। हर मनुष्य इस संसार में अपने पूर्व जन्म में किये शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने के लिए ही जन्म लेता है। जातक अपने कर्मों के अनुसार अच्छे योगों और उच्चादि ग्रहों के साथ जन्म लेता है और भाग्यशाली होता है। पुरुष और स्त्री दोनों के जन्म के कुछ भाग्यशाली योग बताये गये हैं जो निम्नलिखित हैं –
पुरुष का जन्म दिन में शुभ होता है और स्त्री का जन्म रात्रि में शुभ कहा गया है क्योंकि दिन में पितृ कारक सूर्य प्रभावी होता है और रात्रि में मातृकारक चन्द्रमा प्रभावी होता है ।
ओजेष्वर्केन्दुलग्नान्यजनि दिवि पुमांश्चेन्महाभाग्ययोग:
स्त्रीणान्तदव्ययत्ययेस्याच्छशिनी सुरगुरो: केंद्रगे केसरीति ।
जिवन्त्त्याष्टारिसंस्थे शशिनि तु शकट: केन्द्रगे नास्ति लग्ना-
च्चन्द्रे केंद्रादिगेऽर्कादधमसमवरिष्ठाख्ययोगा: प्रसिद्धा: ।।
यदि पुरुष की कुंडली हो और ये चार योग एक साथ उपस्थित हों तो महाभाग्य योग होता है –
१- दिन में जन्म हो अर्थात सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त से पहले
२-लग्न विषम राशि का हो अर्थात मेष,मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुम्भ हो
३-सूर्य विषम राशि में स्थित हो
४-चन्द्रमा भी विषम राशि में हो
यदि स्त्री की कुंडली में ये चार योग एक साथ उपस्थित हों तो महाभाग्य होता है –
१-रात्रि में जन्म हो अर्थात सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद
२-सम लग्न हो अर्थात वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन हो
३-सम राशि में चन्द्रमा हो अर्थात वृष, कर्क,कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन में हो
४- सम राशि का सूर्य भी हो अर्थात वृष, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन में हो
ये चारो बाते कुंडली में होगी तो कन्या महाभाग्यशाली होगी.
ग्रहों के कुछ अन्य प्रसिद्ध योग भी हैं जिनसे कुंडली खराब या अच्छी होती है मसलन पंच महापुरुष योग हो, शास्त्रों में वर्णित राजयोग हों, गजकेसरी योग हो, चन्द्रमा और सूर्य से आगे पीछे शुभ ग्रह हों इत्यादि । चन्द्रमा की स्थिति से सूर्य, गुरु, शुक्र, मंगल, भाग्येश, सप्तमेश इत्यादि की स्थिति के अनुसार कुंडली अच्छी या बुरी होती है । स्त्री की कुंडली में चन्द्रमा से ग्रहों की स्थिति का प्रमुखता से विचार करना चाहिए ।