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सर्वे॑ निमे॒षा ज॒ज्ञिरे॑ वि॒द्यु॒तः॒ पुरु॑षा॒दधि॑ ।
क॒ला मु॑हूर्ताः काष्ठा᳚श्चाहोरा॒त्राश्च॑ सर्व॒शः ॥
अ॒र्ध॒मा॒सा मासा॑ ऋ॒तवः॑ संवत्स॒रश्च॑ कल्पन्ताम् ।
स आपः प्रदु॒धे उ॒भे इ॒मे अ॒न्तरि॑क्ष॒मथो॒ सुवः॑ ॥

काल के सभी अवयव निमेष, कला, मुहूर्त, काष्ठा ,दिन, अहोरात्र, महीने, ऋतुएं काल पुरुष से उत्पन्न हुई हैं और उनमें ही स्थित हैं। सम्वत्सर भी उन्हीं से प्रकट हुआ। उन्होंने ही जल, पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग को दुहा।
शुक्ल यजुर्वेद की ऋचा ही काल पुरुष महाविष्णु के विश्वरूप में काल के सभी अवयवों को स्थापित करते हुए उनके दिव्य स्वरूप की व्याख्या करती है। श्रीमदभागवतं में ज्योतिर्लोक, काल, ग्रह और नक्षत्रों को महापुरुष के विग्रह में स्थापित उनका ध्यान करते हुए निम्नलिखित मन्त्र के जप करने के लिए कहा गया है-
“नमो ज्योतिर्लोकाय कालायनायानिमेषां पतये महापुरुषायाभिधीमहीति”  ज्योतिर्लोक में उन्हीं एक मात्र स्थिति है और उनकी की ईच्छा और आज्ञा से सूर्य और चन्द्र अपने अपने कर्मों में नियुक्त हैं।
अखिल ब्रह्माण्ड भगवान विष्णु के दिव्य विग्रह में ही स्थित है इसलिए भचक्र  की कल्पना भी उनकी देह में ही किया गया है, यथा भागवतं –
यावानयं वै पुरुषो यावत्या संस्थया मित:।
तावानसावपि महापुरुषो लोकसंस्थया ॥
जिस तरह किसी भी मनुष्य के स्वरूप का निर्धारण उसके अंगों के परिमाण से किया जाता है उसी प्रकार से महापुरुष या कालपुरुष के अंगों का निर्धारण राशि चक्र, ग्रहों और नक्षत्रों के अनुसार किया गया है। भगवान श्री कृष्ण ने भगवद्गीता में कहा है “कालोSस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो” “अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः” वे ही अक्षय काल है, सृष्टि का जन्म , स्थिति और विनाश जिस काल के अंतर्गत घटित होता है वो काल उनके ही दिव्य स्वरूप में स्थित है । भचक्र को कालपुरुष का शरीर मान कर ही वैदिक ज्योतिष के ऋषियों ने काल का सम्यक ज्ञान दुनिया के समक्ष रखा और होरा शास्त्र का विकास किया । राशियों, ग्रह और नक्षत्रों के रूप में ही भगवान का अधिदैविक स्वरूप प्रकाशित हो रहा है, उनके इस दिव्य कालचक्र स्वरूप को साक्षात् करने वाला ही दैवज्ञ है ।

कालात्मकस्य च शिरोमुख देशवक्षोहृत्कुक्षिभागकटिबस्तिरहसीदेशा: ।
उरू च जानुयुगलं परस्तु जंघे पादद्वयं क्रियमुखावयवा: क्रमेण ।।
कालपुरुष का १-मेष –(सिर है), २-वृष-(मुख), ३-मिथुन (वक्षस्थल) ,४-कर्क (हृदय), ५-सिंह- (उदर) , ६-कन्या -कटि (कमर ), ७-तुला (बस्ति नाभि से लिंग मूल तक ), ८-वृश्चिक-(लिंग), ९-धनु-(दोनों जांघे ), १०-मकर –(दोनों घुटने ),११-कुम्भ (दोनों पिंडलियां ) और १२- मीन (दोनों पैर )

अंग                        राशिअंग                       राशि
मस्तक-                    मेष
मुख –                     वृष
छाती-                    मिथुन
ह्रदय –                    कर्क
पेट-                       सिंह
कटि-                     कन्या
नाभि –                   -तुला
लिंग –                   -वृश्चिक
उरु –                     -धनु
जंघा –                    -मकर
घुटना –                   -कुम्भ
पैर –                      -मीन 

कालपुरुष के अंगों में जिन राशियों की स्थिति है और जिन भावो में वो राशियाँ पड़ती हैं उन भावों के बल, उनमे स्थित शुभ अशुभ ग्रहों के आधार पर जातक के अंगों के कमजोर और स्वस्थ होने का निर्धारण किया जाता है। जन्म समय जिन राशियों में शुभ ग्रह हों वे अंग पुष्ट और जिनमे पाप ग्रह हों वो अंग दुर्बल और रोगी होता है । इसका बहुत बड़ा उपयोग जातक के अंगों में होने वाले रोगों की पहचान करने में भी किया जाता है।