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 लहरीला पिघला सोना
झरने पर तिपहर की धूप
मुगा रेशम के लच्छे
डाल बादाम की फूलों-लदी
बसन्ती बयार में।
पारदर्श पलकें।
और आँखें? सब-कुछ
उन में कहा जाता है-
वे कुछ नहीं बतातीं।
‘आत्मा की खिड़कियाँ।’
घर में जब शहर बसा
कौन-सी दीवार के पार
झलकेगा कैसा रहस्य?
झटक कर सिर वह हिलाती है
और उग आता है
पटसन की बदली में
रँगा-पुता पन्नी का चाँद।
उत्सव मनाओ! बह जाओ!
लहरीला पिघला सोना…

-सच्चिदानंद  हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय