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अगस्त्य तारा, वशिष्ठ और अरुंधती तथा सप्तर्षि मंडल बहुत शुभ माने गये हैं और भारतीय ज्योतिष में बहुत महत्व रखते हैं। अरुंधती को अगस्त्य के पीछे चले जाने को महाभारत में भीष्म पितामह ने विनाश का निश्चित इंगित माना है। दैवज्ञ श्री वेंकटेश के अनुसार जिस व्यक्ति के जन्म के समय अगस्त्य तारा लग्न में उदित हो तो उसके समस्त अरिष्टों का नाश कर उसे दीर्घायु प्रदान करता है।
उदयोऽगस्त्यमुने: सप्तर्षीणां मरीचिपूर्वाणाम् ।
सर्वारिष्टं नश्यति तं इव सूर्योदये प्रबलम् ।।
अगस्त्य तारा मिथुन राशि के अंत तथा कर्क के प्रारम्भ में स्थित है अर्थात मिथुन के पच्चीस अंश से लेकर कर्क राशि के पन्द्रह अंश के बीच यह उदित होता है। सितम्बर से दिसम्बर के बीच यह रात्रि में उदित होता है। सूर्य सिद्धांत के अनुसार यह सिंह राशि के तीन अंश तथा बीस कला पर उदित होता है और वृष के २७ अंश ४० कला पर अस्त हो जाता है । जिनका लग्न मिथुन के २५ अंश से कर्क के १५ अंश के बीच होगा उसके जन्म लग्न में अगस्त्य तारा होगा। वराहमिहिर के अनुसार अगस्त्य दर्शन का समय सूर्य के सिंह राशि में २७ अंश पहुंचने के बाद होता है। हर देशांतर और अक्षांश के लिए समय निकाल कर अगस्त्य तारा का दर्शन करना चाहिए। वराहमिहिर ने इसका बड़ा माहात्म्य बताया है। अगस्त्य तारा की तरह ही किसी काल में अति शुभ सप्तर्षि मंडल के तारे भी लग्न में उदित हो सकते हैं।

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विष्णुपुराण में जिक्र है कि महाभारत काल में राजा परीक्षित के समय में सिंह राशि के मघा नक्षत्र में सप्तऋषि स्थित थे –
सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते ह्युदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि ।।
तेन सप्तर्षयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम ।
ते तु पारीक्षिते काले मघास्वास्नद्विजोत्तम: । ।- विष्णु पुराण, ४-१०५-१०६
उन तारों को लो जो सप्तऋषि मंडल के उदय में सबसे पहले उदित होते हैं . वह नक्षत्र जो इनके मध्य ,में दिखता है उसमे सप्तऋषि १०० वर्ष रहते हैं । हे ब्राह्मण ! महाराज परीक्षित के राज्यकाल में ये मघा नक्षत्र में स्थित थे।
वराहमिहिर ने भी विष्णुपुराण मे उपरोक्त बताये समय का जिक्र किया है –
आसन मघासु मुनय: शासति पृथ्वीं युधिष्ठिरे नृपतौ ।
षड्द्विकपञ्चद्वियुत: शककालस्तस्य राज्ञश्च । ।
जिस समय राजा युधिष्ठिर पृथ्वी पर राज्य कर रहे थे, उस समय मघा नक्षत्र में सप्तर्षि स्थित थे। वर्तमान शक वर्ष में २५२६ मिलाने से युधिष्ठिर का गताब्द काल प्राप्त होता है ।
सप्तऋषि गण २७०० वर्ष में सम्पूर्ण नक्षत्र चक्र का एक चक्र पूरा करते हैं। उनके एक चक्र से एक युग की समाप्ति हो जाती है। यह तथ्य भी भागवत पुराण से भी प्राप्त होता है। गौरतलब है कि मघा नक्षत्र पितरों का नक्षत्र है और भगवद्गीता में अर्जुन की सबसे बड़ी चिंता का विषय पितृ ही थे।
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।
हे केशव! यदि युद्ध मेरे ही कुल के लोग मारे जायेंगे तो वर्णसंकरता होगी और वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन- (कुलघातियों-) के पितर भी अपने स्थान से गिर जाते हैं।